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गुरुवार, 20 नवंबर 2014

बिहार के सौ साल

बिहार के सौ साल

बिहार की गणना उन राज्यों में होती है जो देश की राजनीतिक दिशा तय करते हैं।  बिहार की कहानी उठने, गिरने और फिर संभलने की कहानी है। आज जब आधुनिक बिहार की स्थापना के सौ साल मनाए जा रहे हैं, तो हमने बिहार से जुड़े कुछ युवाओं से बात की। आइए, जानते हैं बिहार को लेकर उनकी क्या सोच है।

 

मीडिया पर सरकारी नियंत्रण

- संजीव पांडेय

देश में कई सुधारों के लिए अग्रणी बिहार का पतन आजादी के कुछ सालों बाद ही शुरू हुआ। लेकिन 1989 में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर आए लालू प्रसाद यादव ने बिहार की हालत काफी खराब की। 2005 में बिहार में परिवर्तन का दौर फिर शुरू हुआ। बिहार में लालू का जंगल राज खत्म हुआ और एक नया दौर शुरू हुआ। गैर कांग्रेसवाद की उपज नीतीश सत्ता में आ गए। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार के द्वारा बिहार में कुछ मूलभूत परिवर्तन हुआ है। बिहार में कानून व्यवस्था का राज आया। सड़कों की हालत सुधरी। स्कूलों की हालत में कुछ सुधार हुआ। लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार किया गया। आज जो भी व्यक्ति बिहार जाएगा, उसे यह सुधार बिहार में नजर आएगा। लेकिन इसके साथ-साथ बिहार में कुछ बुराइयां भी शुरू हो गईं। बिहार में भ्रष्टाचार का मानक बदला। मतलब लोगों को काम कराना महंगा हो गया। कारपोरेट स्टाइल भ्रष्टाचार ने बिहार में अपनी जड़ें जमायी हैं। ब्यूरोक्रेसी के साथ-साथ नेता भी पैसे वसूलने में जुटे हैं। निश्चित तौर पर कई महकमे बिहार में ऐसे हैं, जहां पर सीधे मंत्री संबंधित अधिकारियों से पैसे मांग रहे हैं। नीतीश राज के कई मंत्रियों के पास बेहिसाब संपत्ति है। किसी ने दुबई में होटल बनाया है तो किसी ने देश के अन्य भाग में होटल बनाया है। कारपोरेट में दो नंबर का पैसा कैसे निवेश करना है, वो बिहार के मंत्रियों को अब आ गया है।

बिहार में शहरी विकास की हालत काफी खराब है। शहरी विकास के नाम पर न तो सीवरेज है, न साफ पानी है, न ही शहरों में खुली सड़कें हैं। सारे शहरों में खुले नालों से मुक्ति लोगों को नहीं मिली है। कई शहरों में बड़े शहरों की देखा-देखी अपार्टमेंट और फ्रलैट कल्चर तो विकसित हो गया, लेकिन उसे संभालने के लिए शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। अब बात गांवों की। गांवों को निश्चित रूप से सड़कों से जोड़ा गया है, लेकिन गांवों के अंदर सैनिटेशन की हालत आज भी खराब है। इस पर बिहार सरकार का कोई ध्यान नहीं है। रही बात बिजली की, आज बिहार में बिजली की हालत वही है, जो लालू यादव के राज में थी। प्रदेश की राजधानी में भी बिजली की हालत अच्छी नहीं है। विकसित हो रहे बिहार में एक नई बात सामने आयी है- मीडिया पर जबरदस्त सरकारी नियंत्रण। यह बिहार के हित में नहीं है। शुरू से लोकतंत्र के लिए लड़ाई लड़ने वाले राज्य के मुखिया पर ही मीडिया पर कब्जा करने का आरोप लग रहा है। सरकार विरोधी खबर लिखने वाले पत्रकार या तो नौकरी से निकाले जा रहे हैं या उनका तबादला हो रहा है। अखबार मालिक विज्ञापनों के चक्कर में सरकार के सामने पूरी तरह से लेट चुके हैं। इस मामले में नीतीश कुमार देश के बाकी मुख्यमंत्रियों से काफी आगे निकल चुके हैं।

 

कैसे बने बिहार बेहतर

संजीव कुमार सिन्हा

आधुनिक दृष्टि-कोण से बिहार के सौ वर्ष पूरे हो गए। इन वर्षों में बिहार ने अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव का दौर देखा। सबसे खराब दौर वह रहा जब श्री लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में कानून का राज चैपट हुआ। शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त हुई। सड़कें खस्ताहाल रहीं। डेढ़ दशक तक बिहार इसी शिकंजे में कसा रहा। लेकिन कहते हैं न, सब दिन होत न एक समान। बिहार के भी सुनहरे दिन लौटे और इसका श्रेय मिला एनडीए शासन को। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कुशल नेतृत्व में बिहारी अस्मिता और सुशासन को लेकर राज्य की नई पहचान बनी है। राज्य में सड़कों का जाल बिछा है। कानून व्यवस्था भी सुगठित हुई है। शिक्षा का माहौल भी उज्ज्वल हुआ है। लेकिन यह तो शुरूआत भर है। भारत के ही एक राज्य गुजरात को देखें तो बिहार अभी बहुत पीछे है।

मैं बिहारी हूं। ‘कैसे बने बिहार बेहतर!’ इस सवाल पर जब सोचता हूं तो कुछ बातें मेरे ध्यान में आती हैं। बिहार में समावेशी विकास पर जोर दिया जाना चाहिए, जिसमें आर्थिक, सामाजिक, न्यायिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय मुद्दे शामिल हों। उच्च शिक्षा के लिए स्कालरशिप की व्यवस्था हो। बेरोजगारी से मुक्ति के लिए तकनीकी शिक्षा पर बल दिया जाए, पालिटेकनिक, आईटीआई आदि बड़े पैमाने पर स्थापित हों। गरीबी उन्मूलन के लिए कृषि में पूंजी निवेश को बढ़ावा मिले। भूख से मुक्ति के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दोषमुक्त बनाया जाए। नशामुक्ति के लिए युवकों को शराब, सिगरेट व गुटखा के दुष्प्रभावों की जानकारी दी जाए। जनता में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हो, इसके लिए अंधविश्वासों से मुक्त रहने की शिक्षा दी जाए। लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए राजनीति के अपराधीकरण और वंशवाद को हतोत्साहित किया जाए। सामाजिक समरसता के लिए अस्पृश्यता और जातिवाद का नाश किया जाए। और चूंकि लोकतंत्र का वर्तमान ढांचा औपनिवेशिक है, इसलिए स्वदेशी अनुकूल माडल विकसित करने के लिए गंभीर प्रयास किए जाएं।

 

विकास की बयार बहे

अमिताभ भूषण

विकास की बयार, समृद्ध बिहार, सरीखे लोक-लुभावन जुमले के सहारे चुनावी बैतरणी पार लगा लेना एक बात है, पर राज्य को वास्तव में समृद्धि के सोपान पर पहुंचाना दूसरी बात है। सरकारी बयान और आंकड़ों में लगातार विकास के पथ पर अग्रसर बिहार की दशा मतिभ्रम के शिकार उस मुसाफिर जैसी हो गयी है, जिसने अपने सफर का लक्ष्य दिल्ली पहुंचना निर्धारित किया था, रेल टिकट भी दिल्ली का बनवाया था, पर यात्रा के लिए जिस गाड़ी में वो जा बैठा था, वो गाड़ी दिल्ली नहीं डाल्टेनगंज जा रही थी। संभव है, बिहार के मुख्यमंत्री और उनके मंत्री परिषद में बैठे लोगों की नीयत बहुत पाकीजा हो, राज्य सरकार अंतःकरण से समृद्ध बिहार का सपना देख रही हो, पर बिहार की समृद्धि के नाम पर जो निर्णय बिहार की सरकार ले रही है, क्या वो वास्तव में विकसित बिहार बनाने में वे सहायक हैं?

विकास का प्रारूप जो मौजूदा शासन ने बनाया या बनवाया है, क्या उससे समृद्ध बिहार संभव है? ऐसे कई जरूरी सवालों के मध्य सरकार की जुबान में लगातार विकास के पथ पर अग्रसर बिहार की वर्तमान स्थिति की चर्चा जरूरी है। राज्य सरकार पटना को पेरिस बनाने की योजना पर कार्यशील है। खेतिहर जमीन पर कंक्रीट का जंगल, दुनियाभर में प्रतिबंधित मानव स्वास्थ्य विरोधी एस्बेस्टस का कारखाना, उसके लिए किसानों का संघर्ष, बदले में गोली, कृषि के विकास के लिए कृषक विहीन कृषि

कैबिनट का गठन, ठेके पर शिक्षा, गुणवत्ता विहीन शिक्षा केंद्र, नाम भर के नालंदा विश्वविद्यायलय में मैकाले की शिक्षा प्रणाली से शिक्षण की व्यवस्था, ऐसी ही बहुतेरी योजनाओं पर राज्य सरकार की 24 गुणे 7 की सक्रियता कायम है।

सीधे-सीधे कहा जाए तो गांधी जिन सात दुनियावी पाप से बचने की सलाह दुनिया को देते रहे, वो सब के सब पाप बिहार में मौजूद हैं। क्या सिद्धांत विहीन राजनीति, श्रमहीन संपत्ति, नीतिहीन व्यापार, विवेकहीन सुख, चरित्रहीन शिक्षा, त्यागहीन पूजा, दयाहीन विज्ञान के रहते समृद्ध बिहार की कल्पना संभव है? बिहार की समृद्धि का रास्ता बिहार की तासीर, उसके स्वभाव में है, शासन में बैठे सत्ताशाह को यह समझना होगा कि स्वभाव के विपरीत किये जाने वाले कार्य विकास नहीं, विनाश करते हैं। बिहार का आदर्श पेरिस नहीं पाटलिपुत्र है, बिहार की तरक्की बिहार की खेतिहर फलहर, माटी-पानी में है। उन्नत बिहारी मस्तिष्क, कर्मठ मानव संसाधन का समुचित सार्थक संयोजन से संभव है- समृद्ध बिहार।

लोक कला, बुनकरी, हस्तशिल्प, आम-लीची, मखाना, रामदाना, चिनिया केला, गन्ना, मक्का सरीखे अपार संभावना वाले अन्न और फल के व्यापार और उसके विकास के प्रति सरकार की बेरुखी दुर्भाग्यपूर्ण है। शराब के सरकारी ठेकों के जरिये समृद्ध बिहार बनाने पर तुली सरकार को शहद और दूध की संभावनाओं को देखने की जरूरत है। बिहार की समृद्धि का सूत्र चार्वाक नहीं चाणक्य में निहित है। काश! ये बात शासन में बैठे लोग समझ पाते।

 

बदल रहा है बिहार

विनय कुमार सिंह

आपको कभी भी कर्मठ और काबिल लोग चाहिए, सशस्त्र क्रांति या सत्याग्रह के लिए तो बिहार सबसे उपयुक्त जगह है। साहब, आप बिहार आइये।

गांधी जी की टोली हो या भगत सिंह की टीम, सब में बिहारियों की भूमिका बढ़-चढ़ कर रही है। स्वाभिमान के लिए संघर्ष, परिवर्तन के लिए ललक ही बिहार के क्रांतिकारी और प्रयोगधर्मी व्यक्तित्व का निर्माण करती है। सदियों से निरंतर आक्रांताओं से लड़ता, भिड़ता, जूझता बिहार हाव-भाव-स्वभाव से लस्करी होता चला गया। इसका असर इसके मानस, जीवन शैली, यहां तक कि खानपान पर भी साफ-साफ दिखता है। हाथ हिलाकर ट्रेन रोक देना, टिकट नहीं लेना, रोड पर टोल टैक्स देने में बेइज्जती महसूस करना भारतवर्ष के आजाद होने के बावजूद सदियों से सिस्टम के खिलाफ एलान-ए-जंग की लत का परिणाम ही तो दिखता है।

भोजन भी वैसा ही जो सैनिक खाता हो, कम संसाधन में कहीं भी, कभी भी बनने और अधिक समय तक टिकने लायक, जैसे खिचड़ी, लिट्टी-चोखा, दही-चूड़ा, सतुआ, ठेकुआ, निमकी आदि।

बिहार की पहचान हमेशा एक ऐसे प्रदेश की रही है जो बिना स्वयं बदले देश और दुनिया को बदलने में तल्लीन रहता है। लेकिन अब बिहार बदल रहा है। बहुत तेजी से चल रहा है। हमेशा से देश और दुनिया की ही बात करने वाला बिहार अब दायरा समेट रहा है। अब बिहार, बिहार और बिहारी की भी बात कर रहा है। यह देश के लिए सुखद संकेत है।

 

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