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शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

बाल दिवस

भारत में यह दिन स्वतंत्र भारत के पहलेप्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन 14 नवंबर को मनाया जाता है। कहा जाता है कि पंडित नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे इसलिए बाल दिवस मनाने के लिए उनका जन्मदिन चुना गया। असल में बाल दिवस की नींव 1925 में रखी गई थी, जब बच्चों के कल्याण पर 'विश्व कांफ्रेंस' मेंबाल दिवस मनाने की सर्वप्रथम घोषणा हुई।1954 में दुनिया भर में इसे मान्यता मिली।संयुक्त राष्ट्र ने यह दिन 20 नवंबर के लिए तय किया लेकिन अलग अलग देशों में यह अलग दिन मनाया जाता है। कुछ देश 20 नवंबर को भी बाल दिवस मनाते हैं। 1950 से 'बाल संरक्षण दिवस' यानि 1 जून भी कई देशों में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन इस बात की याद दिलाता है कि हर बच्चा ख़ास है और बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उनकी मूल जरूरतों और पढ़ाई लिखाई की जरूरतों का पूरा होना बेहद जरूरी है. यह दिन बच्चों को उचित जीवन दिए जाने की भी याद दिलाता है।[2]

नेहरूजी का बाल प्रेम

चाचा नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे और तीन मूर्ति भवन प्रधानमंत्री का सरकारी निवास था। एक दिन तीन मूर्ति भवन के बगीचे में लगे पेड़-पौधों के बीच से गुज़रते हुए घुमावदार रास्ते पर नेहरू जी टहल रहे थे। उनका ध्यान पौधों पर था। वे पौधों पर छाई बहार देखकर खुशी से निहाल हो ही रहे थे तभी उन्हें एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दी। नेहरू जी ने आसपास देखा तो उन्हें पेड़ों के बीच एक-दो माह का बच्चा दिखाई दिया जो दहाड़ मारकर रो रहा था। नेहरूजी ने मन ही मन सोचा- इसकी माँ कहाँ होगी? उन्होंने इधर-उधर देखा। वह कहीं भी नज़र नहीं आ रही थी। चाचा ने सोचा शायद वह बगीचे में ही कहीं माली के साथ काम कर रही होगी। नेहरूजी यह सोच ही रहे थे कि बच्चे ने रोना तेज़ कर दिया। इस पर उन्होंने उस बच्चे की माँ की भूमिका निभाने का मन बना लिया।

चाचा नेहरू बच्चों के साथ

नेहरूजी ने बच्चे को उठाकर अपनी बाँहों में लेकर उसे थपकियाँ दीं, झुलाया तो बच्चा चुप हो गया और मुस्कुराने लगा। बच्चे को मुस्कुराते देख चाचा खुश हो गए और बच्चे के साथ खेलने लगे। जब बच्चे की माँ दौड़ते वहाँ पहुँची तो उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसका बच्चा नेहरूजी की गोद में मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। ऐसे ही एक बार जब पंडित नेहरू तमिलनाडु के दौरे पर गए तब जिस सड़क से वे गुज़र रहे थे वहाँ वे लोग साइकिलों पर खड़े होकर तो कहीं दीवारों पर चढ़कर नेताजी को निहार रहे थे। प्रधानमंत्री की एक झलक पाने के लिए हर आदमी इतना उत्सुक था कि जिसे जहाँ समझ आया वहाँ खड़े होकर नेहरू को निहारने लगा। इस भीड़भरे इलाके में नेहरूजी ने देखा कि दूर खड़ा एक गुब्बारे वाला पंजों के बल खड़ा डगमगा रहा था। ऐसा लग रहा था कि उसके हाथों के तरह-तरह के रंग-बिरंगी गुब्बारे मानो पंडितजी को देखने के लिए डोल रहे हो। जैसे वे कह रहे हों हम तुम्हारा तमिलनाडु में स्वागत करते हैं। नेहरूजी की गाड़ी जब गुब्बारे वाले तक पहुँची तो गाड़ी से उतरकर वे गुब्बारे ख़रीदने के लिए आगे बढ़े तो गुब्बारे वाला हक्का-बक्का-सा रह गया।

बाल दिवस पर जारी डाक टिकट

नेहरूजी ने अपने तमिल जानने वाले सचिव से कहकर सारे गुब्बारे ख़रीदवाए और वहाँ उपस्थित सारे बच्चों को वे गुब्बारे बँटवा दिए। ऐसे प्यारे चाचा नेहरू को बच्चों के प्रति बहुत लगाव था। नेहरूजी के मन में बच्चों के प्रति विशेष प्रेम और सहानुभूति देखकर लोग उन्हें चाचा नेहरू के नाम से संबोधित करने लगे और जैसे-जैसे गुब्बारे बच्चों के हाथों तक पहुँचे बच्चों ने चाचा नेहरू-चाचा नेहरू की तेज़ आवाज़ से वहाँ का वातावरण उल्लासित कर दिया। तभी से वे चाचा नेहरू के नाम से प्रसिद्ध हो गए।[3]

बाल शोषण

बाल दिवस पर नेहरू जीकी तरह कपड़े पहने बच्चे

आज भी चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। जो चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में नज़र आ ही जाते हैं। इनमें से कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं, जिनका उदाहरण देकर हमारी सरकार सीना ठोककर देश की प्रगति के दावे को सच होता बताती है। यही नहीं आज देश के लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चे शोषण का शिकार है। इनमें से अधिकांश बच्चे अपने रिश्तेदारों या मित्रों के यौन शोषण का शिकार है। अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता व अज्ञानता के कारण ये बच्चे शोषण का शिकार होकर जाने-अनजाने कई अपराधों में लिप्त होकर अपने भविष्य को अंधकारमय कर रहे हैं।[4]बचपन आज भी भोला और भावुक ही होता है लेकिन हम उन पर ऐसे-ऐसे तनाव और दबाव का बोझ डाल रहे हैं कि वे कुम्हला रहे हैं। उनकी खनकती-खिलखिलाती किलकारियाँ बरकरार रहें इसके ईमानदार प्रयास हमें ही तो करने हैं। देश के ये गुलाबी नवांकुर कोमल बचपन की यादें सहेजें, इसके लिए ज़रूरी है कि हम उन्हें कठोर और क्रूर नहीं बल्कि मयूरपंख सा लहलहाता बचपन दें।[5] चाचा नेहरू को दो बातें बहुत पसंद थी पहली वे अपनी शेरवानी की जेब में रोज़गुलाब का फूल रखते थे और दूसरी वे बच्चों के प्रति बहुत ही मानवीय और प्रेमपूर्ण थे। यह दोनों ही बातें उनमें कोमल हृदय है इस बात की सूचना देते हैं। बच्चों को वैसे ही लोग प्रिय है, जो गुलाब या कमल के समान हो।[6]

समारोह

बाल दिवस पर नृत्य करते बच्चे

हर वर्ष बचपन की यादों को ताजा करने के लिए बाल दिवस का आयोजन किया जाता है। यह दिन हमें सिखाता है कि एक निर्दोष और जिज्ञासु बच्चे की तरह हमें सदैव खुश रहना चाहिए और हमेशा सीखने की कोशिश करते हुए मुस्कुराते रहना चाहिए। यह बच्चों के लिए उल्लास में डूब जाने का दिन है। स्कूलों में भी यह दिन बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। संपूर्ण भारत में इस दिन स्कूलों में प्रश्नोतरी, फैंसी परिधान प्रतियोगिता और बच्चों की कला प्रदर्शनियों जैसे कई विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। हाल के वर्षों में विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक और कॉरपोरेट संस्थाओं ने सभी पृष्ठभूमि के बच्चों के लिए विशेष समारोह और प्रतियोगिताओं का आयोजन शुरू किया है। इस तरह के आयोजन देश के हर कोने में लोकप्रिय हुए हैं। अब टेलीविश्ज़न और अन्य मीडिया नेटवर्क समाज के प्रत्येक स्तर पर 14 नवंबर को बच्चों के लिए ख़ास कार्यक्रम बना रहे हैं।


बाल दिवस पर जारी डाक टिकट

बाल भवन केंद्र

 मुख्य लेख : राष्ट्रीय बाल भवन

राष्ट्रीय बाल भवन, मानव संसाधन और विकास मंत्रालय द्वारा पूर्ण रूप से वित्त पोषित एक स्वायत्तशासी संस्था है, जो स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के तहत कार्य करती हैं। इन संस्थानों का गठन बच्चों को विभिन्न गतिविधियों, अवसरों एवं आम बातचीत, प्रयोग करने और प्रदर्शन करने के लिए एक मंच उपलब्ध कराकर उनकी रचनात्मक क्षमता को बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के द्वारा बाल भवन केन्द्र के विचार की कल्पना की गई। उनका मानना था कि औपचारिक शिक्षा व्यवस्था से बच्चों के व्यक्तित्व के समग्र विकास की गुंजाइश काफ़ी कम है और बाल भवन एक ऐसी जगह है जो बच्चे के संपूर्ण विकास का वातावरण पेश करके इस अंतर को कम कर सकता है। वर्तमान में राष्ट्रीय बाल भवन से सम्बद्ध 68 राज्य बाल भवन तथा 10 बाल केन्द्र हैं।

संविधान में बाल अधिकार

चाचा नेहरू बच्चों के साथ

भारत का संविधान, संयुक्त राष्ट्र की योजनाओं के ही अनुरूप बच्चों के संरक्षण एवं अधिकारों की रक्षा के लिए कई सुविधाएं देता है। संविधान हर तरह से देश में बच्चों के कल्याण तथा उनकी शिक्षा एवं बालश्रम से मुक्ति के लिए प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से उन्मूलन के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है।

अनुच्छेद 15(3): राज्य को बच्चों एवं महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अधिकार देता है।अनुच्छेद 21ए: राज्य को 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य तथा मुफ़्त शिक्षा देना क़ानूनी रूप से बाध्यकारी है।अनुच्छेद 24: बालश्रम को प्रतिबंधित तथा गैरक़ानूनी कहा गया है।अनुच्छेद 39(ई): बच्चों के स्वास्थ्य और रक्षा के लिए व्यवस्था करने के लिए राज्य क़ानूनी रूप से बाध्य है।अनुच्छेद 39(एफ): बच्चों को गरियामय रूप से विकास करने के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराना राज्य की नैतिक ज़िम्मेदारी है।

बाल दिवस पर विशेष

अमूमन हर अविभावक अपने बच्चे के लिए अच्छा सोचता है, अच्छे से अच्छा करना चाहता है। और उसे सबसे आगे देखना चाहता है। इतना तक तो ठीक है और बहुत स्वाभाविक भी। लेकिन यहाँ देखना होगा कि हम बच्चे की प्रतिभा के संपूर्ण विकास की नींव रख रहे हैं या उसे अपनी महत्त्वाकांक्षा का हिस्सा बनाकर उसकी ज़िंदगी में अंधेरी दलदल और तनाव परोस रहे हैं।

बचपन मेंसचिन तेंदुलकर

अगर अँधेरा घिरने को आए और आपका बच्चा चोट खाकर घर लौटे तो आप क्या करेंगे हममें से ज़्यादा तर माँ-बाप उसे डाँटते-फटकारते हैं। या फिर उसका खेलने जाना बंद कर देते हैं। आज टीवी, कम्प्यूटर से चिपके बच्चों में ज़्यादातर ऐसे ही होते हैं जिनके अविभावक उन्हें बाहर खेलने जाने से रोकते हैं। लेकिन बच्चा इतवार को देर शाम को घर लौटा। वह ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का ज़माना था। एक ही चैनल होता था।- दूरदर्शन। हफ्ते में सिर्फ़रविवार की शाम को फ़िल्म आती थी। पूरा परिवार साथ बैठकर फ़िल्म देखता था। उस दिन भी पूरा परिवार फ़िल्म का आनंद ले रहा था, तभी यह दस-ग्यारह साल का बच्चा घर में घुसा। 

बाल दिवस पर जारी डाक टिकट

दोस्तों के साथ क्रिकेटखेल रहा था। थोड़ी चोट भी लग गई थी। कुहनियों से ख़ून बह रहा था। पिता को गुस्सा तो आया लेकिन बोले कुछ नहीं। न तो उसे किसी ने डांटा, न पीटा। अगली सुबह उसका बड़ा भाई उसे क्रिकेट के कोचरमाकांत आचरेकर के पास ले गया। क्रिकेट के लिए दीवानगी उसमें इतनी कूट-कूटकर भरी थी कि न तो खाने की चिंता थी, न फ़िल्म देखने का शौक़ था। वह बच्चा आगे चलकर हमारा प्यारा सचिन तेंदुलकर बना। यहाँ सचिन की बात इसलिए की कि हममें से हर कोई चाहता है उसका बच्चा अमिताभ,शाहरुख या सचिन बने। लेकिन बात प्रतिभा को समझने और उसे निखार देने की है। हम ग़लत यहां तब हो जाते हैं जब हम बच्चे में प्रतिस्पर्द्धा की भावना भर देते हैं। हम उसके लिए संसाधन और अवसर तो जुटाते हैं, पर यह भी जता देते हैं कि वह दूसरों से अव्वल आए तभी ठीक है। पड़ोसी के बच्चे के 90 प्रतिशत अंक आ जाएँ तो हमारे छिटकू के 85 प्रतिशत अंक तुरंत पानी में चले जाते हैं। देखा मिश्रा जी का लड़का कितना पढ़ता है और तुम रोज़ शाम को दो घंटे खेलने चले जाते हो वह फस्ट आया और तुम थर्ड। उसकी पूरी मेहनत और मार्कशीट में दर्ज 85 फ़ीसदी अंक दो कौड़ी के हो जाते हैं। उसे आदर दुलार मिलना था, पर हिस्से आती है हीन भावना और तनाव। इसके आगे की कहानियों से अखबार और समाचार चैनल भरे पड़े हैं। बच्चे कितने हिंसक और आक्रामक हो रहे हैं। हीन भावना इतनी भर गई है कि इम्तहान देने के साथ ही आत्मह्त्या कर रहे हैं। हममें से बहुत बच्चे को म्युजिक सिखाते हैं, डांस सिखाते हैं, इसलिए कि वह टीवी के रियलिटी शो का हिस्सा बने। वह जीतता है तो परिवार हँसता है और हारे तो जार-जार आँसू बहाता है। उसे इतनी जल्दी बड़ा मत बनाइए। उसे अभी बच्चा ही रहने दीजिए।

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